बिहार में 17वीं विधानसभा के चुनाव 2020 में होने हैं और घटते दिनों के साथ ही प्रदेश में चुनावी आहट शुरू हो गई है. सभी प्रमुख दल आगामी विधानसभा चुनावों की तैयारियों में जुट गए हैं. लेकिन आरजेडी अभी तक अपने तारणहारों का इंतजार ही कर रही है. विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) नेता तेजस्वी यादव की असक्रियता अब अखरने लगी है. एक महीने के करीब होने को आया है लेकिन अभी तक तेजस्वी यादव का कहीं कोई अता पता नहीं है. यहां तक की आरजेडी के नेताओं को इस बात कि कोई जानकारी नहीं है की तेजस्वी आखिर कहां हैं. हालांकि तेजस्वी सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं लेकिन पार्टी से उनका फिलहाल कोई जुड़ाव नहीं है. वहीं तेज प्रताप यादव में वो हुनर नहीं कि वे पार्टी को तराशने का काम कर सकें. लालू प्रसाद यादव के जेल में होने और राबड़ी देवी के करीब-करीब राजनीति से दूर होने के चलते आरजेडी की गाड़ी बेपटरी होती जा रही है.
अभी तक आरजेडी चीफ लालू प्रसाद यादव ही हैं लेकिन पार्टी के बुरे दिनों में अगर पार्टी को किसी ने संभाला और एकजुट रखा, तो वो केवल तेजस्वी यादव हैं जिनका पार्टी कार्यकर्ताओं को इंतजार है. इससे पहले भी लोकसभा में अब तक के सबसे खराब प्रदर्शन के चलते तेजस्वी यादव अचानक से गायब हो गए थे. करीब 33 दिन बाद अचानक से वे सोशल मीडिया पर प्रकट हुए और उन्होंने अपने गायब होने की वजह दिल्ली में इलाज बताई. उसके बाद उन्होंने विधानसभा के मानसून सत्र में भाग भी लिया. उसके बाद लगने लगा कि तेजस्वी यादव पार्टी में सक्रिय हो गए हैं लेकिन अब फिर से गायब होने की वजह अब तक न तो उनसे न ही किसी नेता से बाहर आ पायी है.
तेजस्वी के इस तरह बार-बार गायब होने से सहयोगी दल तो छोड़िए, पार्टी के आला नेताओं में भी नाराजगी घर करने लगी है. लोकसभा में खाता तक न खोल सकती आरजेडी के नेताओं को जहां विधानसभा की तैयारियों में जुट जाना चाहिए, वहां पार्टी की नेतृत्वहीन स्थिति से भला कौन खुश हो सकता है. पार्टी की ये हालात तो उस समय है जबकि कई राज्यों में बीजेपी की आंधी में कांग्रेस, एनसीपी, टीएमसी, सपा, बसपा सहित अन्य शीर्ष पार्टियों के दिग्गज़ नेता कमल की ओट में समाते जा रहे हैं. पार्टी नेताओं का मानना है कि प्रदेश के उप मुख्यमंत्री रह चुके तेजस्वी का इस तरह गैर जिम्मेदाराना रवैया पार्टी के भविष्य के लिए ठीक नहीं है.
लालू यादव और तेजस्वी यादव की राजनीति से दूरी बिहार में महागठबंधन को भी जनता के विश्वास से दूर ले जाते दिख रहे हैं. फिलहाल तो राज्य में महागठबंधन का अस्तित्व भी नहीं दिख रहा. घटक दल भी अलग-अलग रास्ते पर चल निकले हैं. घटक दलों का भी कहना बिलकुल गलत तो नहीं कि जब प्रदेश के सबसे बड़े दल का सबसे बड़ा नेता ही निष्क्रिय है तो कैसा गठबंधन’.
तेजस्वी के इस बर्ताव पर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी खफा हैं. हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा प्रमुख को तेजस्वी में अनुभव की कमी दिखती है. मांझी ने साफ तौर पर कहा है कि तेजस्वी को अगर लालू की जगह लेनी है तो उन्हें विरोधियों का सामना करना चाहिए. माझी ने तेजस्वी के विधानसभा सत्र में अनुपस्थित रहने पर भी नाराजगी जताई थी.
हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के साथ अन्य घटक दलों को भी राजद से अब ज्यादा मतलब नहीं है. रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा साथी दलों से अलग अपनी ताकत के विस्तार में जुटे हैं तो वीआइपी पार्टी के मुकेश साहनी राजनीति से ज्यादा अपने व्यवसाय को बढ़ाने में लगे हुए हैं. कांग्रेस भी राजद से ज्यादा नजदीकियां बढ़ाने के मूड में नहीं दिख रही है.
ऐसे मुश्किल वक्त में राजद के वफादार नाराज होने के बावजूद चाहते हैं कि तेजस्वी यादव फिर से सक्रिय होकर मैदान में उतरे और सियासी रणभेदी का ऐलान कर उनकी बेपटरी हो चुकी पार्टी का नेतृत्व करें. कुछ नेताओं ने तो तेजस्वी यादव के आत्मसम्मान को जगाने के लिए करारे तंज भी कसे हैं. हालांकि उनका कोई खास प्रभाव अभी देखने को नहीं मिला.
5 जुलाई, 2019 को राजद के 23वें स्थापना दिवस समारोह में जब तेजस्वी यादव ने शामिल होने से मना कर दिया तब पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने तेज स्वर में कहा, ‘तेजस्वी लालू यादव को शेर बताते हैं और खुद को शेर का बेटा…तो मांद से निकलिए और विरोधी दलों से निपटिए.’
शिवानंद की तरह कई अन्य वरिष्ठ नेता भी तेजस्वी के रवैये में सुधार के पक्षधर हैं. हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर कोई बोलने के लिए तैयार नहीं लेकिन उनकी नाराजगी अपने चरम पर है. ऐसे में देखना ये होगा कि तेजस्वी यादव कब सामने आकर फिर से पार्टी की कमान संभालते हैं और कैसे ढुलमुल होती राष्ट्रीय जनता दल आगामी विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी, जेडीयू और अन्य दलों का मुकाबला करती है.