लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद अब कांग्रेस में कई मतभेद उभरे

राहुल गांधी की रणनीति पर सवाल उठाने लगे हैं कई वरिष्ठ कांग्रेस नेता, पार्टी में सबकुछ ठीक नहीं, आने वाले समय में और उथल पुथल होने के संकेत

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कांग्रेस (Congress) की मौजूदा स्थिति को लेकर कई विचार सामने आ रहे हैं और पार्टी के भीतर ही मतभेद व्यक्त करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इसके साथ ही यह स्पष्ट होने लगा है कि मौजूदा स्थिति में कांग्रेस को वापस पटरी पर लाना बहुत मुश्किल है, जिससे निकट भविष्य में उसके केंद्र की सत्ता के नजदीक पहुंचने की संभावना बिलकुल नहीं दिख रही है. कांग्रेस का ढांचा उसी समय अस्त-व्यस्त हो चला था, जब केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार चल रही थी और सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं. उस समय कांग्रेस के दिग्गजों ने साधारण कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का जो सिलसिला शुरू किया था और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति जारी रखते हुए जिस तरह हिंदुओं को बदनाम करने की कोशिश की थी, उसके परिणाम स्वरूप कांग्रेस पतन के गर्त में पहुंची.

सदैव वातानुकूलित वातारण में रहने वाले कांग्रेसियों को यह बात 2014 का चुनाव बुरी तरह हारने के बाद समझ में आई. उसके बाद राहुल गांधी ने अपनी छवि एक आस्थावान हिंदू की बनाने का हास्यास्पद प्रयास किया. राहुल गांधी ने पार्टी को चलाने के लिए अपने हिसाब से रणनीति बनाई, जो नाकाम रही. 2019 का चुनाव भी कांग्रेस (Congress) बुरी तरह हारी और राहुल गांधी ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया, जो एक महीने से ज्यादा समय तक मंजूर नहीं किया गया. राहुल ने अपनी एक अलग टीम बना ली थी. राहुल के युवा साथियों के साथ कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं की पटरी नहीं बैठी, खींचतान हुई और उसका नतीजा सामने है. आज कांग्रेस अपनी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी की छवि गंवा चुकी है. उसके अस्तित्व और भविष्य को लेकर सवाल उठने लगे हैं.

सलमान खुर्शीद जैसे नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की नीतियों की सार्वजनिक आलोचना कर चुके हैं और ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कांग्रेस में अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए जूझ रहे हैं. हरियाणा, महाराष्ट्र सहित विभिन्न राज्यों में भी यही स्थिति बनी हुई है. हाल ही हरियाणा में पांच वर्ष तक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे अशोक तंवर कांग्रेस से बाहर हो चुके हैं. वह पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा का विरोध कर रहे थे. अशोक तंवर राहुल गांधी की पसंद से नियुक्त हुए थे, जबकि हुड्डा पुराने कांग्रेसी हैं. इस तरह कांग्रेस में कई जगह खेमेबंदी और गुटबाजी फैली हुई है.

पार्टी में दो गुट साफ देखे जा रहे हैं. एक गुट पुराने वरिष्ठ कांग्रेसियों का है, दूसरा गुट राहुल गांधी का समर्थक है. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सोनिया गांधी को अंतरिम तौर पर अध्यक्षता संभालनी पड़ी है, जिसके बाद वरिष्ठ कांग्रेसियों की स्थिति मजबूत हो गई है. कई पुराने कांग्रेसी कहने लगे हैं कि राहुल गांधी की प्रोफेशनल टीम ने पार्टी को हार की कगार तक पहुंचाने का काम किया. अब सोनिया गांधी ने पार्टी की जिम्मेदारी संभालने के बाद एंटनी को पार्टी की हार के कारणों की जांच करने की जिम्मेदारी सौंपी है. इसमें अधिकतर वरिष्ठ कांग्रेस (Congress) नेताओं की यह राय सामने आई कि राहुल गांधी की प्रोफेशनल टीम ने मोदी सरकार से निबटने की गलत रणनीति अपनाई.

कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी यहां तक कहने लगे हैं राहुल गांधी के अपरिपक्व नेतृत्व से कांग्रेस की यह स्थिति हो रही है. कई कांग्रेसी निराश हो गए हैं और दूसरी पार्टियों में शामिल हो रहे हैं. भाजपा पहले ही अपना जनाधार बढ़ाने के लिए बड़े पैमान पर विरोधी पार्टियों के नेताओं को अपना सदस्य बनाने में जुटी हुई है. महाराष्ट्र में कांग्रेस के कई नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं. अन्य राज्यों में भी मध्य पंक्ति के कांग्रेस नेताओं में निराशा फैली हुई है.

कांग्रेस (Congress) नेताओं का कहना है कि लोकसभा चुनाव से पहले कई मुद्दे थे. नोटबंदी का असर, जीएसटी लागू होने के बाद बनी स्थिति, किसानों की समस्या, रोजगार की समस्या आदि ज्वलंत मुद्दों को को छोड़ कर राहुल की टीम ने कांग्रेस का प्रचार अभियान मुख्य रूप से राफेल सौदे में घोटाले के मुद्दे पर केंद्रित करते हुए मोदी सरकार को बोफोर्स घोटाले की तर्ज पर बदनाम करने का प्रयास किया, जिसका कोई असर नहीं हुआ. राहुल की सभाओं में ….. चौकीदार चोर है…. के जो नारे लगे, उससे भी जनता में राहुल गांधी की गलत छवि बनी. दरअसल बोफोर्स मामला कांग्रेस में वीपी सिंह की बगावत के बाद चर्चा में आया था, जबकि राफेल मुद्दे पर भाजपा में बगावत जैसी स्थिति नहीं है.

कुछ कांग्रेसियों की राय है कि लोकसभा चुनाव को राहुल बनाम मोदी का रूप देने से बहुत नुकसान हुआ. जब कांग्रेस ने वाजपेयी सरकार को हटाकर सत्ता हासिल की थी, तब 2004 का लोकसभा चुनाव वाजपेयी बनाम सोनिया की तर्ज पर नहीं लडा गया था. 2019 में कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टियों की अगुवा बनी हुई थी, इसलिए चुनाव को राहुल बनाम मोदी घोषित करना ठीक नहीं था. राहुल गांधी ने खुद का नाम चमकाने के लिए पार्टी को डुबा दिया. राहुल ने लोगों के सामने जो न्याय योजना घोषित की थी, उसका कोई असर नहीं हुआ, क्योंकि भाजपा की मोदी सरकार किसानों के खाते में सीधे राशि जमा कराने का सिलसिला शुरू कर चुकी थी.

राहुल के नेतृत्व में अनुभवी और जनाधार रखने वाले कांग्रेसियों की उपेक्षा हुई. राहुल गांधी ने नवजोत सिंह सिद्धू और सैम पित्रोदा जैसे लोगों को स्टार प्रचारक के रूप में चुनाव मैदान में उतारा, जो कि लोगों के गले उतरने वाली बात नहीं थी. अब कांग्रेस के एक बार फिर बुरी तरह हारने के बाद जब राहुल गांधी ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया है तो कई वरिष्ठ कांग्रेसी यह कह रहे हैं कि पार्टी की पराजय से जुड़े असली कारणों की तरफ से ध्यान हटाने के लिए राहुल गांधी ने इस्तीफा दिया है. इस तरह कांग्रेस (Congress) में मतभेदों का सिलसिला जारी है औऱ भविष्य में कांग्रेस क्या स्वरूप लेने वाली है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है.

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